Tuesday, 10 August 2010

माँ - मुन्नवर राणा


माँ - मुन्नवर राणा

सुख देती हुई माओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती।

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।

अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

4 comments:

  1. मुनव्वर राना जी की शायरी अद्भुत है।

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  2. आदाब,
    दीनदयाल जी.....
    आपने अपने ब्लॉग पे मुनव्वर साहेब के माँ पे कहे चंद अशआर लगा कर ....वाकई ..पढने वाले और शायरी को सिर्फ कच्चे गोश्त कि दुकान समझने वालो पे एहसान किया है....

    शायरी कि रिवायतों से परे उसे रिश्तों में पिरोने का काम किया है मुनव्वर साहेब ने ......
    माँ पे कहा उनका ये शेर भी ...कमाल का है....

    मैंने कल शब चाहतों की सब किताबे फाड़ दी ,
    सिर्फ इक कागज़ पे लिक्खा लफ्ज़ ए माँ रहने दिया

    मुझे बड़ी ख़ुशी है कि बच्चो पे लिखने वाले कवि का दिल अब धीरे धीरे शायरी कि जानिब होने लगा है,,,,,

    दुआगो....
    विजेंद्र

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  3. वाह! इस ब्लॉग में तो अनमोल कविताओं का संकलन है.

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  4. मुनव्वर भाई की यह मशहूर रचना है . जो उन्होने सोनिया गाँधी पर लिखी ।

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