बालिका दिवस-2010
26 सितंबर का दिन बेटियों के लिए खास है। इस बार 26 सितंबर को ‘बालिका दिवस’ है। कुछ साल पहले तक मां, पिता और बेटे से लेकर दोस्त तक सभी के नाम पर साल में कोई न कोई एक दिन जरूर तय रहता था, मगर बेटियों के नाम पर कोई दिन नहीं होता था। इसी कमी को देखते हुए बेटियों के लिए भी एक दिन चुना गया, जिसे अब ‘बालिका दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। ‘बालिका दिवस’ हर सितंबर के चौथे रविवार को मनाया जाता है। इस लिहाज से इस बार ‘बालिका दिवस’ 26 सितंबर को है।
‘चाईल्ड राइट्स एंड यू ‘क्राई’’ (‘क्राई’) और ‘यूनिसेफ’ ने पहली बार ‘बालिका दिवस’ साल 2007 के सितंबर के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर 2007 को मनाया था। इस तरह ‘बालिका दिवस’ की शुरुआत 2007 से हुई। यह दिन उन सभी लोगों के लिए खास दिन है, जिन्हें बेटियों से प्यार है। आज भी हमारे समाज में बेटियों के जन्म लेने पर खुशियां नहीं मनाई जाती हैं और बेटों की तरह उन्हें अच्छी परवरिश भी नहीं दी जाती है। इसी भेदभाव को दूर करने के लिए ‘क्राई’, ‘यूनिसेफ’ और ‘आर्चीज’ ने मिलकर ‘बालिका दिवस’ की शुरुआत की थी। अब ‘बालिका दिवस’ न सिर्फ भारत में, बल्कि कई ऐसे देशों में मनाया जा रहा है, जहां बेटियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है। इस दिन को परिवार में बेटी के संबंधों को समर्पित किया गया है।
आज हजारों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है या जन्म लेते ही लावारिस छोड़ दिया जाता है। आज भी समाज में कई घर ऐसे हैं, जहां बेटियों को बेटों की तरह अच्छा खाना और अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5 प्रतिशत (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं, जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22 प्रतिशत (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं, जो 18 साल के पहले मां बनी हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73 प्रतिशत (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल, इन बच्चों में 67 प्रतिशत (दो-तिहाई) कुपोषण के शिकार हैं।
1991 की जनगणना से 2001 की जनगणना तक, हिन्दु और मुसलमानों- दोनों की ही जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है। मगर, 2001 की जनगणना का यह तथ्य सबसे ज्यादा चौंकता है कि 0 से 6 साल के बच्चों के लिंग अनुपात में भी भारी गिरावट आई है। देश में बच्चों का लिंग अनुपात 976:1000 (1000 लड़कों पर 976 लड़कियां) है, जो कुल लिंग अनुपात 992:1000 (1000 पुरुष पर 992 महिलाएं) के मुकाबले बहुत कम है। यहां कुल लिंग अनुपात में 8 के अंतर के मुकाबले बच्चों के लिंग अनुपात में अब 24 का अंतर दर्ज है। यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है। यह अंतर भयावह भविष्य की ओर भी इशारा करता है।
6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50 प्रतिशत लड़कियां स्कूल से ड्रॉप-आउट हो जाती हैं। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। गौरतलब है कि ‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रंस राइट्स’ यानी एनसीपीसीआर की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बीताना पड़ता है। इसी तरह, सरकारी आकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को स्कूल से ड्रॉप-आउट होना पड़ता है, वहीं 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत (ठीक दोगुनी) से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल से ड्रॉप-आउट हो जाना पड़ता है। 2008 के एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वे स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं।
इस गैरबराबरी को बच्चियों की कमी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद स्थितियों के तौर पर देखा जाना चाहिए। अगर लड़की है, तो उसे ऐसा ही होने चाहिए, इस प्रकार की बातें उसके सुधार की राह में बाधाएं बनती हैं। इन्हीं सब स्थितियों और भेदभावों को मिटाने के मकसद से ‘बालिका दिवस’ मनाने पर जोर दिया जा रहा है। इसे बच्चियों की अपनी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे असली कारणों को सामने लाने के रूप में मनाने की जरुरत है, जो सामाजिक धारणा को समझने के साथ-साथ बच्चियों को बहन, बेटी, पत्नी या मां के दायरों से बाहर निकालने और उन्हें सामाजिक भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने में मदद के तौर पर जाना जाए।
‘चाईल्ड राइट्स एंड यू ‘क्राई’’ (‘क्राई’) और ‘यूनिसेफ’ ने पहली बार ‘बालिका दिवस’ साल 2007 के सितंबर के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर 2007 को मनाया था। इस तरह ‘बालिका दिवस’ की शुरुआत 2007 से हुई। यह दिन उन सभी लोगों के लिए खास दिन है, जिन्हें बेटियों से प्यार है। आज भी हमारे समाज में बेटियों के जन्म लेने पर खुशियां नहीं मनाई जाती हैं और बेटों की तरह उन्हें अच्छी परवरिश भी नहीं दी जाती है। इसी भेदभाव को दूर करने के लिए ‘क्राई’, ‘यूनिसेफ’ और ‘आर्चीज’ ने मिलकर ‘बालिका दिवस’ की शुरुआत की थी। अब ‘बालिका दिवस’ न सिर्फ भारत में, बल्कि कई ऐसे देशों में मनाया जा रहा है, जहां बेटियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है। इस दिन को परिवार में बेटी के संबंधों को समर्पित किया गया है।
आज हजारों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है या जन्म लेते ही लावारिस छोड़ दिया जाता है। आज भी समाज में कई घर ऐसे हैं, जहां बेटियों को बेटों की तरह अच्छा खाना और अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5 प्रतिशत (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं, जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22 प्रतिशत (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं, जो 18 साल के पहले मां बनी हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73 प्रतिशत (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल, इन बच्चों में 67 प्रतिशत (दो-तिहाई) कुपोषण के शिकार हैं।
1991 की जनगणना से 2001 की जनगणना तक, हिन्दु और मुसलमानों- दोनों की ही जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है। मगर, 2001 की जनगणना का यह तथ्य सबसे ज्यादा चौंकता है कि 0 से 6 साल के बच्चों के लिंग अनुपात में भी भारी गिरावट आई है। देश में बच्चों का लिंग अनुपात 976:1000 (1000 लड़कों पर 976 लड़कियां) है, जो कुल लिंग अनुपात 992:1000 (1000 पुरुष पर 992 महिलाएं) के मुकाबले बहुत कम है। यहां कुल लिंग अनुपात में 8 के अंतर के मुकाबले बच्चों के लिंग अनुपात में अब 24 का अंतर दर्ज है। यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है। यह अंतर भयावह भविष्य की ओर भी इशारा करता है।
6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50 प्रतिशत लड़कियां स्कूल से ड्रॉप-आउट हो जाती हैं। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। गौरतलब है कि ‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रंस राइट्स’ यानी एनसीपीसीआर की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बीताना पड़ता है। इसी तरह, सरकारी आकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को स्कूल से ड्रॉप-आउट होना पड़ता है, वहीं 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत (ठीक दोगुनी) से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल से ड्रॉप-आउट हो जाना पड़ता है। 2008 के एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वे स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं।
इस गैरबराबरी को बच्चियों की कमी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद स्थितियों के तौर पर देखा जाना चाहिए। अगर लड़की है, तो उसे ऐसा ही होने चाहिए, इस प्रकार की बातें उसके सुधार की राह में बाधाएं बनती हैं। इन्हीं सब स्थितियों और भेदभावों को मिटाने के मकसद से ‘बालिका दिवस’ मनाने पर जोर दिया जा रहा है। इसे बच्चियों की अपनी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे असली कारणों को सामने लाने के रूप में मनाने की जरुरत है, जो सामाजिक धारणा को समझने के साथ-साथ बच्चियों को बहन, बेटी, पत्नी या मां के दायरों से बाहर निकालने और उन्हें सामाजिक भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने में मदद के तौर पर जाना जाए।
वाह, कित्ती अच्छी जानकारी मिली...डाटर्स-डे की सभी को बधाइयाँ.
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