Friday 27 August 2010

2 बाल कविताएँ / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

मेरा घोड़ा
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
मेरा घोड़ा
लम्बा –चौड़ा
बहुत अनाड़ी ।
खाकर पत्ती
मार दुलत्ती
खींचे गाड़ी ।
सरपट दौड़े
पीछे छोड़े
नदी पहाड़ी ।
देखे –भाले
पोखर नाले
टीले झाड़ी ।
काली बिल्ली
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
काली बिल्ली
छोड़ गाँव को
भागी-भागी
आई दिल्ली ।
दौड़ लगाई, 
लाल किले तक
मिला नहीं पर
दूध मलाई ।
दिन-भर भटकी , 
गली-गली में
चौराहों पर
आकर अटकी ।
अब यह आई, 
बात समझ में-
जीभ चटोरी
है दुखदायी ।

Sunday 22 August 2010

आया राखी का त्यौहार / के. के. यादव

आया राखी का त्यौहार  
राखी का त्यौहार भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जो प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में मनाया जाता है। इस वर्ष भाई-बहन के प्यार का प्रतीक यह पर्व 24 अगस्त को पड़ रहा है। आज इस आधुनिकता एवम विज्ञान के दौर में संसार मे सब कुछ हाईटेक हो गया है। वहीं हमारे त्यौहार भी हाईटेक हो गए है। इन्टरनेट व एस0एम0एस0 के माध्यम से आप किसी को कहीं भी राखी की बधाई दे सकते है। किन्तु जो प्यार, स्नेह, आत्मीयता एवं अपनेपन का भाव बहन द्वारा भाई की कलाई पर राखी बाँधने पर है वो इस हाईटेक राखी में नही है। इस सम्बन्ध में हिन्दी फिल्म का एक मशहूर गाना याद आता है-‘‘बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बाँधा है, कच्चे धागे से सारा संसार बाँधा है।‘‘ इन पंक्तियों में छुपा भाव इस पर्व की सार्थकता में चार चाँद लगा देता है। डाकिया बाबू इन भावनाओं को हर साल आपके दरवाजे तक पहुँचाता है, सो इस साल भी तैयार है।

बहनों द्वारा राखियों को सुरक्षित एवं सुगमता से भेजने के लिए डाक विभाग ने विभिन्न रंग-रूपों में विशेष तरह के लिफाफे जारी किये गये हैं। ये लिफाफे पूर्णतया वाटर प्रूफ, मजबूत, पारगमन के दौरान न फटने, रंगबिरंगे एवं राखी की विभिन्न डिजाइनों से भरपूर है। इसके चलते जहाँ राखी प्राप्त करने वाले को प्रसन्नता होगी, वहीं इनकी छंटाई में भी आसानी होगी। यही नहीं राखी डाक को सामान्य डाक से अलग रखा जा रहा है। लोगों की सुविधा के लिए डाकघरों में अलग से डलिया लगाई गयी हैं, जिन पर स्थान का नाम लिखा है। पोस्ट की गई राखियों को उसी दिन विशेष बैग द्वारा सीधे गंतव्य स्थानों को प्रेषित कर दिया जा रहा है, ताकि उनके वितरण में किसी भी प्रकार की देरी न हो। ऐसे सभी भाई जो अपने घर से दूर है तथा देश की सीमा के सजग प्रहरी हमारे जवान जो बहुत ही दुर्गम परिस्थियो मे भी देश की सुरक्षा मे लगे है उन सभी की कलाई पर बँधने वाली राखी को सुरक्षित भेजे जाने के लिए भी डाक विभाग ने विशेष प्रबन्ध किये हैं। तो आप भी रक्षाबन्धन का इन्तजार कीजिए और इन्तजार कीजिए डाकिया बाबू जो आपकी राखी को आप तक पहुँचाना सुनिश्चित करेंगे और भाई-बहन के इस प्यार भरे दिवस के गवाह बनेंगे। 
- के. के. यादव, http://www.dakbabu.blogspot.com  से साभार 

Friday 20 August 2010

दृढ़ निश्चय वाला बालक / दीनदयाल शर्मा


दृढ़ निश्चय वाला बालक
आठ-दस छोटे-छोटे बालक स्कूल से घर लौट रहे थे। रास्ते में आम का एक बाग पड़ता था। वृक्षों पर लगे पीले-पीले रंग के रसील आम देखकर बालकों के मुंह में पानी भर आया। और उन्होंने पत्थर उठाकर वृक्षों पर लगे आमों पर मारने शुरू कर दिए। आम तड़ातड़ नीचे गिरने लगे। लेकिन एक छोटा-सा बालक चुपचाप खड़ा अपने साथियों यकी हरकतें देखता रहा। उसका एक साथी बोला- क्यों रे नन्हा, देख क्या रहा है? आम नहीं तोड़ेगा क्या? फिर हम नहीं खिलाएंगे, अभी मौका है। तोड़ ले दो चार।
नन्हा बोला- मैं तो नहीं तोड़ता, जाओ मुझे नहीं खाने ऐसे चोरी के आम। उसका साथी वापस चला गया। तो नन्हा इधर-उधर ताकने लगा। अचानक उसकी नज़र बुलाब के फूलों की तरफ गई तो उसका मन ललचाया। और उसने एक गुलाब का फूल चुपके से तोड़ लिया। इतने में ही माली गालियां देता हुआ आ धमका। सब बच्चे भाग गए, लेकिन नन्हा नहीं भागा। वह हाथ में गुलाब का फूल छिपाए वहीं खड़ा रहा। माली ने नन्हे को देखा तो उसे जा दबोचा और कान पकड़कर नन्हे के गाल पर तीन-चार चांटे लगा दिए।
मुझे थप्पड़ क्यों मारा? नन्हा बोला। तुझे पता है मेरे पिता नहीं है।  इतना कहते ही नन्हा सुबकने लगा। तब तो तुझे दो-चार चपत और लगनी चाहिए। एक तो बाप नहीं है और ऊपर से चोरी करता है। तुझे तो बहुत ही अच्छा आदमी बनना चाहिए। माली ने गुस्से से कहा।
यह सुनते ही उस नन्हे बालक ने सुबकना तो बंद कर दिया और माली की बात का दृढ़ निश्चय कर दिया कि वह अब अच्छा आदमी ही बनेगा। और यही नन्हा बालक जिसने एक दिन अच्छा आदमी बनने का संकल्प किया था। वह कोई और नहीं, बल्कि उसका नाम था- लाल बहादुर शास्त्री। जो अपनी ईमानदारी और दृढ़ निश्चय के बलबूते पर 6 जून 1964 को शनिवार के दिन भारत का दूसरा प्रधान मंत्री बना।  दीनदयाल शर्मा 

Saturday 14 August 2010

आज़ादी / दीनदयाल शर्मा



आज़ादी 

आज़ादी दिवस को
अक्कू ने मनाया,
पिंजरे को खोला
और मिट्ठू को उड़ाया..

दीनदयाल शर्मा, 
मोबाइल : 09414514666
  

जादू की पुड़िया सा मौसम / जा़किर अली ‘रजनीश’







जादू की पुड़िया सा मौसम 


कभी ताड़ सा लम्बा दिन है कभी सींक सा लगता।
जादू की पुड़िया  सा मौसम, रोज बदलता रहता।।

कुहरा कभी टूट कर पड़ता, चलती कभी हवाएँ।
आए कभी यूँ आँधी कि कुछ समझ में नहीं आए।

जमने लगता खून कभी तो सूरज कभी पिघलता।।
जादू की पु‍डिया सा मौसम, रोज बदलता रहता।।

कभी बिकें अंगूर, अनार व कभी फलों का राजा।
कभी–कभी हैं बिकते जामुन बाज़ारों में ताज़ा।

लीची आज और कल आड़ू, मस्ती भरा उछलता।
जादू की पुड़िया  सा मौसम, रोज बदलता रहता।।

बढ़ता जाता समय तेज गति हर कोई बतलाए।
छूट गया जो पीछे, वो फिर लौट कभी न आए।

पछताए वो, काम समय से जो अपना न करता।
जादू की पुड़िया  सा मौसम, रोज बदलता रहता।।




जन्म: 03 अगस्त 1973
उपनाम
‘रजनीश’
जन्म स्थान
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत।
कुछ प्रमुख
कृतियाँ
हिन्दी में पटकथा लेखन (स्क्रिप्ट राइटिंग), गिनीपिग (उपन्यास), विज्ञान कथाएं (विज्ञान कथा संग्रह). सात सवाल, हम होंगे कामयाब, समय के पार (सभी बाल उपन्यास), मैं स्कूल जाऊंगी, सपनों का गाँव, चमत्कार, हाज़िर जवाब, कुर्बानी का कर्ज़, ऐतिहासिक गाथाएँ, सराय का भूत, अग्गन-भग्गन, सोने की घाटी, सुनहरा पंख, सितारों की भाषा, विज्ञान की कथाएँ, ऐतिहासिक कथाएँ, साहसिक कहानियाँ, मनोवैज्ञानिक कहानियाँ, प्रेरक कहानियाँ, ज़ाकिर अली 'रजनीश' की श्रेष्ठ बाल कथाएँ (सभी बाल कहानी संग्रह), इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ, एक सौ इक्यावन बाल कविताएँ, तीस बाल नाटक, प्रतिनिधि बाल विज्ञान कथाएँ, ग्यारह बाल उपन्यास (सभी सम्पादित)।








Tuesday 10 August 2010

माँ - मुन्नवर राणा


माँ - मुन्नवर राणा

सुख देती हुई माओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती।

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।

अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।

ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।

मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

Friday 6 August 2010

रमेश कौशिक की कविता / जिराफ

जिराफ

ऊंट हमारा मामा लगता
घोड़ा अपना भाई है
चरते-चरते बात पते की 
मम्मी ने बतलाई है।
खाल हमारी ऐसी जैसे 
ओढा हुआ लिहाफ है
अपना नाम जिराफ है।

इतनी बड़ी कुलाँचे अपनी
हिरन देखकर शरमाता
पेड़ों का मस्तक जब देखो
हमें देख कर झुक जाता।

चाहे कोई दुश्मन समझे
अपना मन तो साफ है
अपना नाम जिराफ है।

हिंसा में विश्वास नहीं है
शाकाहारी कहलाते
बल-प्रयोग तब ही करते 
जब संकट में घिर जाते।

जब तक कोई नहीं छेड़ता
तब तक सब कुछ माफ है
अपना नाम जिराफ है।





रमेश कौशिक (जन्म 19 मार्च 1930,खुर्जा, उ0प्र0 - निधन 27 सितंबर 2009, नोएडा, उ0प्र0) के अब तक ग्यारह कविता-संग्रह, चार विदेशी कविताओं के अनुदित संग्रह,पाँच बालगीत-संग्रह,चार लोककथा तथा जीवनी-साहित्य से संबधित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक रचनाएँ नर्सरी से लेकर एम0ए0 तक पाठ्यक्रमों में निर्धारित तथा पी-एच0डी0 के लिए शोध का विषय्।
1977 में सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार और 1990 में बल्गारिया लेखक संघ के सर्वोच्च पुरस्कार-पेगासस स्वर्णपदक से हुए। बालसाहित्य के लिए उन्हें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से 1980 में और हिंदी अकादमी, दिल्ली से 1982-83,1987-88और 1996-97 में पुरस्कार मिला।
रमेश कौशिक की अनेक रचनाएँ अँग्रेजी, बल्गारियाई, रूसी,लिथुनिआई, बंगला और पंजाबी भाषा में अनूदित हो चुकी हैं।
विदेशों में अयोजित अनेक अंतर्राष्ट्रीय लेखक-सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त किया। 


कृतियाँ :


काव्य-संग्रह : सुबह की धूप(1956), समीप और समीप (1970), चाहते तो (1973), सच सूर्य है(1979), सुनहले पंख (1983), क्रमश (1990),कहीं कुछ था (1996), कहाँ हैं वे शब्द (20000),मैं यहाँ हूँ(20004),यहाँ तक वहाँ से (2008)
अनुवाद:101 सोवियत कविताएँ (1975),रूसी और सोवियत प्रेम कविताएँ(1978),रूसी बाल-कविताएँ(1979),बल्गारियाई कविताएँ(1985)
बालकाव्य-संग्रह : हम हैं चाँद सितारे (1978), सोनचिरैया (1982),51बाल-कविताएँ (1988),गीत मेरे देश के (1996),151 बाल-कविताएँ(2001)
कथासाहित्य: दो सिर वाला दैत्य(1990),सागर द्वीपों की लोककथाएँ (भाग-1 व 2)(1996)
जीवनी : महर्षि अरविंद (1994)





Sunday 1 August 2010

टेलीविजन / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’

मेरा टी०वी० है अनमोल ।
खोल रहा दुनिया की पोल ।।

इसमें चैनल एक हज़ार ।
इसके बिन जीवन बेकार ।।

कितना प्यारा और सलोना ।
बच्चों का ये एक खिलौना ।।

समाचार इसमें हैं आते ।
कार्टून हैं ख़ूब हँसाते ।।

गीत और संगीत सुनाता ।
पल-पल की घटना बतलाता ।।

बस रिमोट का बटन दबाओ ।
मनचाहा चैनल पा जाओ ।।

यह सबके मन को भाता है ।
क्रिकेट, कुश्ती दिखलाता है ।।

नृत्य सिखाता, मन बहलाता ।
नये-नये पकवान बताता ।।

नई-नई कारों को देखो ।
जगमग त्योहारों को देखो ।।

नए-नए देखो परिधान ।
टेलीविजन बहुत महान ।।


मोबाइल: 09368499921, 09997996437, 09456383898



हिन्दी में लिखिए